लेखनी कहानी -12-Mar-2024
प्रीत कली सी खिल रही
मन के पर्वत को पास बिठाकर प्रेम की दरिया में जाना है मन की खलबली को पाकर मुझे उस दरिया को पाना है। जिसमे सावन की प्रीत नाजुक कली सी खिल रही है।
बौछार की बूंद टपकर बैचेन मन की हरियाली बनी थी औजार की धुन सुनकर प्रेम नगर की क्यों खुशिहाली जगी थी जिसमे सावन की प्रीत नाजुक कली सी खिल रही हो
इसी सोच को मन में जगाकर खोयी उम्मीद को अपना रहा हूँ अपने तो अपनापन दिखाकर रोती शक्ल को बिन उम्मीद अपना रहे है जिसमे सावन की प्रीत नाजुक कली सी खिल रही थी
वक्त को अभी भी भरोसा दिलाकर सावन की प्यास जगा रहा हूँ सख्त रवैया वो अपना दिखाकर मुझ रावण की प्यास बुझा रही है जिसमे सावन की प्रीत नाजुक कली ती खिल रही थी उस नाजुक कली को कांटो में गिरा देखकर षड्यन्त्र कारो की ईट से ईट बजायी थी मदमस्ती मे चूर वो अहंकार पर हावि होकर क्या अपनी मोत की जबरदस्त बंटी बजायी थी